शुक्र है वो आदतें छूट गई स्कूल जाने की,
साथ ले गई वो सच्ची वजह मुस्कुराने की,
एक बस्ता ही तो था थोड़ा भारी कँधे पे,
पर थी उसमें ताकत सबकुछ सुलझाने की,
कभी साइकल कभी पाँव कभी धूप कभी छाँव,
खुशी अजीब सी होती स्कूल से घर आने की,
अब भी बोझ रहता है कंधे पर वैसा ही,
कोशिश करते रहेते है खुद को उलझाने की,
दो पहिया चार पहिया प्रयास करते रहेते,
दफ्तर से घर तकका अंतर छोटा बनाने की,
फर्क पहले और अब में इतना रहा है कि,
जीतकर लौटते,अब आदत खुद को हराने की।
- निशांक मोदी
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