-----एक शख्स-----
देखता हूं उस शख्स को रोज मयखाने में,
बहोत ही मज़ा आता है उसे यहां आने में,
आता तो था वो यहां शाम को स्वस्थ होकर,
लड़खड़ा कर भटक जाता यही पर खोकर,
करता शराब की तारीफ़े और साकी की बुराइया,
कहेता खाली गिलासमें दिखती मुजे मेरी तन्हाइयां,
था उसका घर सिर्फ दो मिनिट के रास्ते पर,
फिर भी दो घण्टे लग जाते कभी उसे घर जाने में
देखता हूं उस शख्स को रोज मयखाने में,
बहोत ही मज़ा आता है उसे यहां आने में...
पैसो से भरी जेब मे खुशियो की कमी थी,
चहेरे पे झुरिया और आँखों मे बस नमी थी,
सहम जाता किसी की वो पुरानी यादों में,
हँस देता वो महफ़िल में होती फरियादों पे,
कहता तेरी तकलीफ़ भी यार कहा तकलीफ़ है,
सबकुछ खोकर देख में कहे रहा हु सब ठीक है,
अमीर था, दिन को रहेता वो शीशमहल में,
रात बिताता कभी सलाखों के पीछे थाने में,
देखता हूं उस शख्स को रोज मयखाने में,
बहोत ही मज़ा आता है उसे यहां आने में...
लाचारी नही जीना उसकी अब सिर्फ मजबूरी थी,
रह गई थी मोहब्बत अधूरी और कहानी पूरी थी,
आईने के सामने बैठकर सारी बाते उलजाता था,
खुद ही फरियाद करता, खुद ही वो सुल्जाता था,
किसी की कही हुई बात दिमाग मे छप गई थी,
की 'और भी गम है मोहब्बत के सिवा ज़माने में'
देखता हूं उस शख्स को फिर भी रोज मयखाने में,
पता नही क्यो क्या मज़ा आता है उसे यहां आने में...
- निशांक मोदी