आगे बढ़ने का वो ख़्वाब लेके बैठे थे,
दफ्तरों में एक वो किताब लेके बैठे थे,
जाके कोई देखो, मिट गई क्या नफ़रतें,
जंग के मैदान में वो गुलाब लेके बैठे थे,
गालों पे जलन महसूस होगी अब तो,
आंसू का आंखों में वो सैलाब लेके बैठे थे,
बचिकुची इज्ज़त गवां दी आज तो,
मयख़ाने में खाली वो शराब लेके बैठे थे,
करने गए पुण्य, पाप हो गया उनसे,
जुगनुओंको समजाने वो चिराग लेके बैठे थे,
बुलंद थी पहचान, ना मिला हमसफ़र,
भीड़ में तन्हा काला वो नक़ाब लेके बैठे थे,
आगे बढ़ने का वो ख़्वाब लेके बैठे थे,
दफ्तरों में एक वो किताब लेके बैठे थे।
- निशांक मोदी
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